1857 के क्रन्तिकारी तात्या टोपे के इतिहास से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य और जानकारी
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प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम प्रमुख सेनानायक तात्या टोपे का जन्म पटौदा जिला, महाराष्ट्र, भारत 16 फरवरी 1814 को हुआ था. इन्हें महाराष्ट्र का बाघ के नाम से भी जाना जाता है. वर्ष १८५७ के विद्रोह में तात्या टोपे की भूमिका अहम् और प्रेणादायक थी.
Biography of Tatya tope in Hindi
सन 57 का विद्रोह १० मई को मेरठ से शुरू हुई और इस क्रान्ति की आग उत्तर भारत में धीरे-धीरे फैल रही थी. सत्तावन के विद्रोह में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहब पेशवा, राव साहब, बहादुरशाह जफर आदि स्वतंत्रता सेनानी के विदा हो जाने के बाद तात्या टोपे इस विद्रोह की कमान संभाले रहे.
तात्या टोपे का जन्म एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में हुआ था इनके पिता का नाम पाण्डुरंग राव भट्ट़ (मावलेकर) था. तात्या टोपे का वास्तिविक नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव था.
कानपुर तक १८५७ का विद्रोह पहुँच चूका था तब वहां के प्रमुख सैनिको ने नाना साहब को पेशवा और अपना नेता घोषित किया और इस विद्रोह में नाना साहेब ने तात्या टोपे को अपना सैनिक सलाहकार चुना.
ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में इलाहाबाद की ओर से कानपुर पर हमला किया तो उस समय तात्या ने इसकी सुरक्षा में अपनी पूरी कोशिश और जी-जान लगा दी थी परन्तु १६ जुलाई, १८५७ तात्या की हार हुई जिसके कारण उन्हें कानपूर छोड़ना पड़ा. पेशवाई की समाप्ति के पश्चात बाजीराव के ब्रह्मावर्त चले जाने के बाद तात्या ने पेशवाओं की राज्यसभा का पदभार ग्रहण किया.
1857 की क्रांति का समय जैसे-जैसे निकट आता गया, वैसे-वैसे वे नानासाहेब पेशवा के प्रमुख परामर्शदाता बन गए. 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों से तात्या ने अकेले सफल संघर्ष किया था. रावसाहेब पेशवा ने 3 जून 1858 तात्या टोपे को सेनापति के पदभार दिया और भरी राज्यसभा में एक रत्नजड़ित तलवार भेंट कर उन्हें सम्मानित किया गया।
रानी लक्ष्मीबाई के शहादत के बाद तात्या टोपे ने 18 जून 1858 को गुरिल्ला युद्ध पद्धति की रणनीति अपनाई। तात्या टोपे द्वारा गुना जिले के चंदेरी, ईसागढ़ के साथ ही शिवपुरी जिले के पोहरी, कोलारस के वनों में गुरिल्ला युद्ध करने की अनेक दंतकथाएं हैं।
शिवपुरी-गुना के जंगलों में तात्या टोपे को 7 अप्रैल 1859 सोते हुए धोखे से पकड लिया गया जिसके बाद 15 अप्रैल को 1859 को 1857 के माहन स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे को राष्ट्रद्रोह में 15 अप्रैल को 1859 को फांसी की सजा सुना दी गई. 18 अप्रैल 1859 के शाम को तात्या टोपे को ग्वालियर के पास शिप्री दुर्ग के निकट क्रांतिवीर तात्या टोपे को फांसी दे दी गई और महान क्रन्तिकारी तात्या टोपे ने अपनी मातृभूमि के लिए वीरगति को प्राप्त हुए.